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वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : किताब महल प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :415
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16713
आईएसबीएन :9788122501957

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"वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली : विद्रोह की अग्निशिखा से स्वतंत्रता की ओर।"

भूमिका

चन्द्रसिंह गढ़वाली की जीवनी कितनी महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्द्धक है, इसे इस पुस्तक के पाठकों से कहने की आवश्यकता नहीं। सन्‌ १८५७ ई० में हमारे सैनिकों ने अपने देश की आजादी के लिये विदेशियों के खिलाफ बगावत का झंडा उठाया थ। इसके बाद यही पहली घटना थी, जबकि भारतीय (गढ़वाली) सैनिकों ने अपने देश के खिलाफ अपनी बन्दूकों का इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया। उस वक्त सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ था, लेकिन सशख्तर क्रान्ति के लिये तैयार नहीं। यदि उसकी सम्भावना होती, तो इसमें शक नहीं वीर गढ़वाली सैनिक एक-एक कर कटके मर जाते, तभी उनके हाथों से बन्दूकें छूटतीं। पेशावर के इस विद्रोह से प्रेरित होकर नेताजी द्वारा संगठित आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित होने में गढ़वाली सबसे पहले रहे। आजादी की जो प्रेरणा उस वक्त मिली, उसने द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते ही भारतीय नौसेना में विद्रोह कराकर अंग्रेजों को दिखला दिया, कि अब तुम्हारे द्वारा प्रशिक्षित भारतीय सैनिक तुम्हारे लिये नहीं बल्कि देश की आजादी के लिये अपने हथियार उठायेंगे। देश में हुई जन-जागृति और भारतीय सैनिकों के इस रुख ने बतला दिया कि अंग्रेज अब फिर भारत को गुलाम नहीं रख सकते। इस तरह पेशावर का विद्रोह, विद्रोहों की एक श्रृंखला पैदा करता है, जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है। वीर चन्द्र सिंह इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक थे।

चन्द्र सिंह के रूप में हमारे देश को एक अद्भुत जननायक मिला, अफसोस है कि देश की परिस्थिति ने उसे अपनी शक्तियों के विकास और उपयोग का अवसर नहीं दिया। स्वतन्त्रता-संग्राम के सेनानियों की हमारा देश कदर कर रहा है। सन्‌ १८५७ ई० के नायकों के स्मारक बनने जा रहे हैं और महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो महान्‌ आन्दोलन छिड़ा, उसके नेताओं का भी पूरा सम्मान करते कोशिश की जा रही है कि मालूम हो, देश की आजादी का श्रेय केवल उन्हीं को है। खुदीराम बोस, भगतसिंह, चन्द्रशेघर आजाद और उनके साथियों की कुर्बानियों पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इतिहास उन्हें भुला नहीं सकता, यह निश्चित है। यहाँ हम गढ़वाल के सांस्कृतिक और बौद्धिक नेता श्री मुकुन्दीलाल बैरिस्टर ने मुकदमें के फैसले के २३ वर्ष बाद गढ़वाल के साप्ताहिक “देवभूमि” (१५ नवम्बर १६५३ ) में “भारतवर्ष की स्वतन्त्रता में गढ़वाली सैनिकों की देन” के नाम से एक लेख लिखा था, जिसके निम्न अंश से मालूम होगा, कि पेशावर-काण्ड में गढ़वाली वीरों ने जो असाधारण वीरता दिखलाई थी, उसका प्रभाव पीछे भी कितना पड़ा, और उसमें बड़े भाई का कितना हाथ था :

“अब तक गढ़वाली सिपाही बतौर सिपाहियों के विदेशी शासन कर्त्ताओं के अधीन अपने लड़ाकेपन का सबूत देते रहे। सन्‌ १६३० में महात्मा गांधी के असहयोग अहिंसा शास्त्र की भनक उनके कान तक पहुँची। हवलदार चन्द्र सिंह “गढ़वाली” आर्यसमाजी था। वह पेशावर की छावनी से शहर में आता-जाता था और जनता के भाव मालूम करके छावनी में पहुँचता। जो कुछ असहयोग-आन्दोलन के कारण शहर में हो रहा था, उसकी सूचना हवलदार चन्द्र सिंह सिपाहियों को बताते रहते थे। चन्द्र सिंह “गढ़वाली” के कहने पर सेकंड रायल गढ़वाल रायफल्स के ६० सिपाही वा छोटे अफसरों ने इस्तीफे लिख दिये कि हम पेशावर शहर में असहयोग आन्दोलन को दमन करने जाने के बजाय इस्तीफा दाखिल करते हैं। इस्तीफे का कागज अभी कमांडिंग अफसर के पास पेश नहीं हो पाया था। मामला विचाराधीन था।

“किन्तु जब २२ अप्रैल ३० को सेकंड बटालियन फालिन की गई, और उनको छावनी से पेशावर शहर में जाने का हुकुम दिया गया, तो सिपाही सशस्र खड़े रहे, टस से मस नहीं हुए। गढ़वाली अफसर बगलें झाँकते रहे। जब बड़े अंग्रेज अफसरों को स्थिति का पता लगा, तब खलबली मची। ब्रिगेडियर पहुँचे। सेकण्ड रायल गढ़वाल रायफल्स की दो प्लाटूनों के साठ सिपाहियों को लारियों पर बैठाकर शहर के लिये रवाना होने का हुकुम हुआ। हवलदार चन्द्र सिंह ने १७ सिपाहियों के इस्तीफे का कागज पेश कर दिया। बाकी सैनिकों के दस्तखत वाला कागज पेश नहीं होने पाया।

“ब्रिगेडियर समझ गया, गढ़वाली सिपाही अब हमारे लिये नहीं लड़ेंगे। उनको हथियार छोड़ने को कहा गया। उन्होंने पहले इन्कार किया। पीछे विवश होकर क्वार्टर गार्ड में रख दिया। कुछ सिपाहियों ने तो ब्रिगेडियर की ओर संगीन भी कर दी थी, किन्तु गोली नहीं छोड़ी। इसका दूसरा परिणाम यह हुआ, कि ६० गढ़वालियों पर म्यूटिनी (विद्रोह, बगावत) का अभियोग लगाया गया। सारी सेकंड बटालियन काकुल (एबटाबाद) में नजरबन्द कर दी गई। कोर्ट-मार्शल पहले केवल १९ सिपाहियों व अफसरों का हुआ। इन्हीं की जवाबदेही पर सब गढ़वाली पल्टनों का-खासकर सेकंड बटालियन का-भविष्य निर्भर था। मैं लैन्सडीन से उनकी पैरवी के लिये एबटाबाद कोर्ट-मार्शल के सामने बुलाया गया था। मेरा ध्येय था कि किसी तरह अपने १९ मुवक्किलों की जानें बचाऊँ और रायल गढ़वाल रायफल्स की अन्य बटलियनों को हानि न पहुँचने दूँ।  स्थिति को देखकर मैंने वही किया, जो एक वकील को अपने मुवक्किल के लिए करना चाहिये। मैंने सारा इलजाम सरकारी गवाह जयसिंह सूबेदार पर डाला, कि उसी ने इनको बहकाया था। इसलिये उन्होंने पेशावर शहर में अशस्त्र लोगों पर गोली चलाये जाने से इन्कार किया और इस्तीफा दिया। इस दलील के कारण विद्रोह का अभियोग ढीला पड़ा, और कोर्ट-मार्शल ने वह सजा नहीं दी, जो म्युटिनी के लिये उपयुक्त होती, १७ में से केवल ९ छोटे ओहदेदारों को सजा दी गई, बाकी सिपाही छोड़ दिये गये और ६० में से बाकी ४३ सैनिकों के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया गया, बटालियन का बाल बाँका नहीं हुआ। रायल गढ़वाल रायफल्स की अन्य बटालियन पर भी इस अभियोग का कुछ असर नहीं पड़ा। यह नितान्त गलत है, कि गढ़वाल सैनिकों ने माफी माँगी या झूठ कहा। मैं कानूनी चाल चला। मैंने अपने मुवक्किवल सिपाहियों से कहा, कि आप लोग केवल जुर्म से इन्कार कर कहें कि हम कसूरवार नहीं। हमने कोई जुर्म नहीं किया। अपने गढ़ (गढ़वाली) पलटनों को कायम रखने की गरज से मैंने उनकी कार्रवाई को सही बताने का प्रयत्न किया। मैंने अपने मुवक्किलों व गढ़वाली पलटनों के लिये वही किया, जो एक गढ़वाली वकील को करना चाहिये था। मुझे इस बात का गौरव है, कि उन्होंने मुझे लैन्सडौन से पेशी के लिये बुलवाया।

“यहाँ पर मैं यह कह देना चाहता हूँ, कि मेरी दलील, बहस व वकीली चाल का कोई असर न होता परन्तु ब्रिटिश आफिसर और कमांडर-इन-चीफ खुद चाहते थे, कि संसार को यह पता न लगे, कि भारतीय सेना अंग्रेजों के खिलाफ हो गई है। इसीलिए उन्होंने मेरी दतील व बहस पर गौर करके हवलदार चंद्र सिंह “गढ़वाली” को आजन्म कैद की सदा दी, औरों को आठ वर्ष से दो वर्ष तक के कारावास का दंड दिया। परन्तु सबके सब पूरी सजा भुगतने से पहले ही छोड़ दिये गये।

“श्री चन्द्रसिंह “गढ़वाली” की हम गढ़वाली यथोचित कदर नहीं करते। वह एक बड़ा महान् पुरुष है। आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है। पेशावर-कांड का नतीजा यह हुआ, कि अंग्रेज समझ गये, कि भारतीय सेना में यह डिचार गढ़वाली सियाहियों ने ही पहले पहल पैदा किया, कि विदेशियों के लिये अपने खिलाफ नहीं लड़ना चाहिये।

 

विषय सूची

१. बाल्य (१८९१-१९०४ ई.)

२. तरुणाई की उषा (१९०४ ई.)

३. फौज में (१९१४ ई.)

४. फ्रांस को (१९१५ ई.)

५. फाइरिग लाइन में

६. देश में (१९१५ ई.)

७. मसोपोतामिया युद्ध क्षेत्र (१९१७ ई.)

८. फिर देश में (१९१७-१९ ई.)

९. असहयोग का जमाना (१९२१ ई.)

१०. पश्चिमोत्तर सीमान्त में (१९२१-२३ ई.)

११. नई चेतना (१९२२-२९ ई.)

१२. खैबर में (१९२९ ई.)

१३. नमक सत्याग्रह (१९३० ई.)

१४. पेशावर-कांड (१९३० ई.)

१५. गिरफ्तारी (१९३० ई.)

१६. फौजी फैसला (१९३० ई.)

१७. प्रथम जेल-जीवन (१९३०-३६ ई.)

१८. बरेली जेल में (१९३६-३७ ई.)

१९. नाना जेलों में (१९३७-४१ ई.)

२०. जेल से मुक्त (१९४१ ई.)

२१. गांधी जी के पास (१९४२ ई.)

२२. सन्‌ १९४२

२३. पार्टी केन्द्र में (१९४७ ई.)

२४. जनता में काम

२५. गढ़वाल में

२६. ध्रुवपुर में (१९५० ई.)

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